मंगलवार, 28 मार्च 2017

8 बातें : जब महाराणा प्रताप का घायल चेतक भी भारी पड़ा मुगलों पर

महाराणा प्रताप मेवाड़ के शक्‍ितशाली हिंदू शासक थे। सोलहवीं शताब्दी के राजपूत शासकों में महाराणा प्रताप ऐसे शासक थे, जो अकबर को लगातार टक्कर देते रहे। हालांकि महाराणा प्रताप जितने बहादुर थे, उससे ज्‍याद निडर उनका चेतक घोड़ा था। यह अरबी मूल का घोड़ा महाराणा प्रताप का सबसे प्रिय था। हल्दी घाटी-(1576) के प्रसिद्ध युद्ध में चेतक ने वीरता का जो परिचय दिया था, वो इतिहास में अमर है।
1. चेतक घोड़े की सबसे खास बात थी कि, महाराणा प्रताप ने उसके चेहरे पर हाथी का मुखौटा लगा रखा था। ताकि युद्ध मैदान में दुश्‍मनों के हाथियों को कंफ्यूज किया जा सके।

2. युद्ध मैदान में बहुबल और हथियारों की अधिकता के चलते अकबर की सेना महाराणा प्रताप पर हावी होती जा रही थी। लेकिन अंत में बिजली की तरह दौड़ते चेतक घोड़े पर बैठकर महाराणा प्रताप ने दुश्‍मनों का संहार किया।

3. एक बार युद्ध में चेतक उछलकर हाथी के मस्‍तक पर चढ़ गया था। हालांकि हाथी से उतरते समय चेतक का एक पैर हाथी की सूंड में बंधी तलवार से कट गया।

4. अपना एक पैर कटे होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए चेतक बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। जिसे मुगल की सेना पार ना कर सकी।

5. ऐसा माना जाता है कि हल्दीघाटी के युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुगलों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी।

6. आपको यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि महाराणा प्रताप का भाला 81 किलो वजन का था और उनके छाती का कवच 72 किलो का था। उनके भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन मिलाकर 208 किलो था।

7. हल्दीघाटी के युद्ध में हिंदू शासक महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले सिर्फ एक मुस्लिम सरदार था -हकीम खां सूरी।

8. महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियां की थीं। कहा जाता है कि उन्होंने ये सभी शादियां राजनैतिक कारणों से की थीं।

यह भी देखे ----

१ महाराणा प्रताप के लिए बहुत ही सुन्दर कुछ पंक्तिया कही गयी है
२-





महाराणा प्रताप के बारे में 16 रोचक तथ्य |

महाराणा प्रताप, ये एक ऐसा नाम है जिसके लेने भर से मुगल सेना के पसीने छूट जाते थे. एक ऐसा राजा जो कभी किसी के आगे नही झुका. जिसकी वीरता की कहानी सदियों के बाद भी लोगों की जुबान पर हैं. वो तो हमारी एकता में कमी रह गई वरना जितने किलों का अकबर था उतना वजन तो प्रयाप के भाले का था. महाराणा प्रताप मेवाड़ के महान हिंदू शासक थे.
1. महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था. प्रताप इनका और राणा उदय सिँह इनके पिता का नाम था.
2. प्रताप का वजन 110 किलो और हाईट 7 फीट 5 इंच थी.
3. प्रताप का भाला 81 किलो का और छाती का कवच का 72 किलो था. उनका भाला, कवच, ढाल और साथ में दो तलवारों का वजन कुल मिलाकर 208 किलो था.
4. प्रताप ने राजनैतिक कारणों की वजह से 11 शादियां की थी.
5. महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं.
6. अकबर ने राणा प्रताप को कहा था की अगर तुम हमारे आगे झुकते हो तो आधा भारत आप का रहेगा, लेकिन महाराणा प्रताप ने कहा मर जाऊँगा लेकिन मुगलों के आगे सर नही नीचा करूंगा.
7. प्रताप का घोड़ा, चेतक हवा से बातें करता था. उसने हाथी के सिर पर पैर रख दिया था और घायल प्रताप को लेकर 26 फीट लंबे नाले के ऊपर से कूद गया था.
8. प्रताप का सेनापति सिर कटने के बाद भी कुछ देर तक लड़ता रहा था.
9. प्रताप ने मायरा की गुफा में घास की रोटी खाकर दिन गुजारे थे.
10. नेपाल का राज परिवार भी चित्तौड़ से निकला है दोनों में भाई और खून का रिश्ता हैं.
11. प्रताप के घोड़े चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा लगाया जाता था. ताकि दूसरी सेना के हाथीकंफ्यूज रहें.
12. महाराणा प्रताप हमेशा दो तलवार रखते थे एक अपने लिए और दूसरी निहत्थे दुश्मन के लिए.
13. अकबर ने एक बार कहा था की अगर महाराणा प्रताप और जयमल मेड़तिया मेरे साथ होते तो हम विश्व विजेता बन जाते.
14. आज हल्दी घाटी के युद्ध के 300 साल बाद भी वहां की जमीनो में तलवारे पायी जाती हैं.
15. ऐसा माना जाता है कि हल्दीघाटी के युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे। मुगलों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो राणा प्रताप के पास जुझारू शक्ति की कोई कमी नहीं थी.
16. 30 सालों तक प्रयास के बाद भी अकबर, प्रताप को बंदी न बना सका. 29 जनवरी 1597 को शिकार दुर्घटना में injury की वजह से प्रताप की मृत्यु हो गई.  प्रताप की मौत की खबर सुनकर अकबर भी रो पड़ा था.

हिन्दी कविता : महाराणा प्रताप

गाथा फैली घर-घर है,
आजादी की राह चले तुम,
सुख से मुख को मोड़ चले तुम,
'नहीं रहूं परतंत्र किसी का',
तेरा घोष अति प्रखर है,
राणा तेरा नाम अमर है।

भूखा-प्यासा वन-वन भटका,
खूब सहा विपदा का झटका,
नहीं...कहीं फिर भी जो अटका,
एकलिंग का भक्त प्रखर है,  


भारत राजा, शासक, सेवक, 
अकबर ने छीना सबका हक,
रही कलेजे सबके धक्-धक्
पर तू सच्चा शेर निडर है,
राणा तेरा नाम अमर है।

मानसिंह चढ़कर के आया,
हल्दी घाटी जंग मचाया,
तेरा चेतक पार ले गया,
पीछे छूट गया...लश्कर है,
राणा तेरा नाम अमर है।

वीरों का उत्साह बढ़ाए,
कवि जन-मन के गीत सुनाएं,
नित स्वतंत्रता दीप जलाएं,
शौर्य सूर्य की उज्ज्वलकर है, 
राणा तेरा नाम अमर है।
राणा तेरा नाम अमर है।  

कविता : मेवाड़ का वीर योद्धा महाराणा प्रताप पर पंडित नरेन्द्र मिश्र की कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार है -

राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
राणा प्रताप आजादी का, अपराजित काल विधायक है।।

वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।
आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ.सूर्य।।  ..


राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।
ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।

पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज बलिदानी का।
जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।  

सोमवार, 27 मार्च 2017

उदयपुर............

उदयपुर राजस्थान का एक नगर एवं पर्यटन स्थल है जो अपने इतिहास, संस्कृति एवम् अपने अाकर्षक स्थलों के लिये प्रसिद्ध है। इसे सन् 1559 मे महाराणा उदय सिंह ने स्थापित किया था। अपनी झीलों के कारण यह शहर 'झीलों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। उदयपुर शहर सिसोदिया राजवंश द्वारा ‌शासित मेवाड़ की राजधानी रहा है।




इतिहास .................
उदयपुर बनास नदी पर, नागदा के दक्षिण पश्चिम में उपजाऊ परिपत्र गिर्वा घाटी में महाराणा उदय सिंह द्वितीय ने 1559 में स्थापित किया था। यह मेवाड़ राज्य की नई राजधानी के रूप में स्थापित किया गया था। इस क्षेत्र ने पहले से ही 12 वीं सदी के माध्यम से 10 वीं में मेवाड़ की राजधानी के रूप में कार्य किया था, जो एक संपन्न व्यापारिक शहर, आयद था। गिर्वा क्षेत्र पहले से ही कमजोर पठार चित्तौड़गढ़ था कि जब भी यह करने के लिए ले जाया गया है जो चित्तौड़ शासकों के लिए अच्छी तरह से जाना जाता है, इस प्रकार था दुश्मन के हमलों के साथ धमकी दी। महाराणा उदय सिंह द्वितीय, तोपखाने युद्ध की 16 वीं सदी के उद्भव के बाद में, एक अधिक सुरक्षित स्थान पर अपनी राजधानी को स्थानांतरित करने के कुंभलगढ़ में अपने निर्वासन के दौरान फैसला किया। आयद इसलिए वह अरावली श्रृंखला की तलहटी में शिकार करते हुए कहा कि वह एक साधु के पास आ खड़ा हुआ है, जहाँ अपनी नई राजधानी शहर है, शुरू करने के लिए पिछोला झील के रिज पूर्व चुना है, बाढ़ की आशंका थी। साधु ने राजा को आशीर्वाद दिया और यह अच्छी तरह से संरक्षित किया जाएगा उसे आश्वस्त मौके पर एक महल का निर्माण करने के लिए उसे निर्देशित। उदय सिंह द्वितीय फलस्वरूप साइट पर एक निवास की स्थापना की। नवंबर 1567 में मुगल बादशाह अकबर ने चित्तौड़ की पूजा किले को घेर लिया।
मुगल साम्राज्य कमजोर के रूप में, सिसोदिया शासकों, अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कि और चित्तौड़ को छोड़कर मेवाड़ के सबसे पुनः कब्जा। उदयपुर एक पहाड़ी क्षेत्र है और भारी बख़्तरबंद मुगल घोड़ों के लिए अनुपयुक्त होने के नाते 1818 में ब्रिटिश भारत के एक राजसी राज्य बन गया है जो राज्य की राजधानी बना रहा, उदयपुर ज्यादा दबाव के बावजूद मुगल प्रभाव से सुरक्षित बने रहे। वर्तमान में, अरविंद सिंह मेवाड़ मेवाड़ राजवंश के 76 वें संरक्षक है।

मेवाड

8वीं से 16वीं सदी तक बप्पा रावल के वंशजो ने अजेय शासन किया और तभी से यह राज्य मेवाड के नाम से जाना जाता है। बुद्धि तथा सुन्दरता के लिये विख्यात महारानी पद्मिनी भी यहीं की थी। कहा जाता है कि उसकी एक झलक पाने के लिये सल्तनत दिल्ली के सुल्तान अल्लाउदीन खिलजी ने इस किले पर आक्रमण किया। रानी ने अपने चेहरे की परछाई को लोटस कुण्ड में दिखाया। इसके बाद उसकी इच्छा रानी को ले जाने की हुयी। पर यह संभव न हो सका। क्योंकि महारानी सभी रानियों और सभी महिलाओं सहित एक एक कर जलती हुयी आग जिसे विख्यात जौहर के नाम से जानते है, में कूद गयी और अल्लाउदीन खिलजी की इच्छा पूरी न हो सकी।
मुख्य शासकों में बप्पा रावल (1433-68), राणा सांगा (1509-27) जिनके शरीर पर 80 घाव होने, एक टांग न (अपंग) होने, एक हाथ न होने के बावजूद भी शासन सामान्य रूप से चलाते थे बल्किबाबर के खिलाफ लडाई में भी भाग लिया। और सबसे प्रमुख महाराणा प्रताप (1572-92) हुये जिन्होने अकबर की अधीनता नहीं स्वीकार की और राजधाने के बिना राज्य किया।

दर्शनीय स्थल (शहर में)

पिछोला झील
महाराणा उदय सिंह द्वितीय ने इस शहर की खोज के बाद इस झील का विस्तार कराया था। झील में दो द्वीप हैं और दोनों पर महल बने हुए हैं। एक है जग निवास, जो अब लेक पैलेस होटल बन चुका है और दूसरा है जग मंदिर। दोनों ही महल राजस्थानी शिल्पकला के बेहतरीन उदाहरण हैं, बोट द्वारा जाकर इन्हें देखा जा सकता है।
जग निवास द्वीप, उदयपुर
पिछोला झील पर बने द्वीप पैलेस में से एक यह महल, जो अब एक सुविधाजनक होटल का रूप ले चुका है। कोर्टयार्ड, कमल के तालाब और आम के पेड़ों की छाँव में बना स्विमिंग-पूल मौज-मस्ती करने वालों के लिए एक आदर्श स्थान है। आप यहाँ आएं और यहाँ रहने तथा खाने का आनंद लें, किंतु आप इसके भीतरी हिस्सों में नहीं जा सकते।
जग मंदिर, उदयपुर
पिछोला झील पर बना एक अन्य द्वीप पैलेस। यह महल महाराजा करण सिंह द्वारा बनवाया गया था, किंतु महाराजा जगत सिंह ने इसका विस्तार कराया। महल से बहुत शानदार दृश्य दिखाई देते हैं, गोल्डन महल की सुंदरता दुर्लभ और भव्य है।
सिटी पैलेस, उदयपुर
प्रसिद्ध और शानदार सिटी पैलेस उदयपुर के जीवन का अभिन्न अंग है। यह राजस्थान का सबसे बड़ा महल है। इस महल का निर्माण शहर के संस्थापक महाराणा उदय सिंह-द्वितीय ने करवाया था। उनके बाद आने वाले राजाओं ने इसमें विस्तार कार्य किए। तो भी इसके निर्माण में आश्चर्यजनक समानताएं हैं। महल में जाने के लिए उत्तरी ओर से बड़ीपोल से और त्रिपोलिया द्वार से प्रवेश किया जा सकता है।
नगर महल (सिटी पैलेस) का सायंकाल का दृश्य
शिल्पग्राम, उदयपुर
यह एक शिल्पग्राम है जहाँ गोवा, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के पारंपरिक घरों को दिखाया गया है। यहाँ इन राज्यों के शास्त्रीय संगीत और नृत्य भी प्रदर्शित किए जाते हैं।
सज्‍जनगढ़ (मानसून पैलेस)
उदयपुर शहर के दक्षिण में अरावली पर्वतमाला के एक पहाढ़ की चोटी पर इस महल का निर्माण महाराजा सज्जन सिंह ने करवाया था। यहाँ गर्मियों में भी अच्‍छी ठंडी हवा चलती है। सज्‍जनगढ़ से उदयपुर शहर और इसकी झीलों का सुंदर नज़ारा दिखता है। पहाड़ की तलहटी में अभयारण्‍य है। सायंकाल में यह महल रोशनी से जगमगा उठता है, जो देखने में बहुत सुंदर दिखाई पड़ता है।
फतेह सागर 
महाराणा जय सिंह द्वारा निर्मित यह झील बाढ़ के कारण नष्ट हो गई थी, बाद में महाराणा फतेह सिंह ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। झील के बीचों-बीच एक बागीचा , नेहरु गार्डन, स्थित है। आप बोट अथवा आटो द्वारा झील तक पहुंच सकते हैं।
मोती मगरी
यहाँ प्रसिद्ध राजपूत राजा महाराणा प्रताप की मूर्ति है। मोती मगरी फतेहसागर के पास की पहाड़ी पर स्थित है। मूर्ति तक जाने वाले रास्तों के आसपास सुंदर बगीचे हैं, विशेषकर जापानी रॉक गार्डन दर्शनीय हैं।
सहेलियों की बाड़ी
सहेलियों की बाड़ी / दासियों के सम्मान में बना बाग एक सजा-धजा बाग है। इसमें, कमल के तालाब, फव्वारे, संगमरमर के हाथी और कियोस्क बने हुए हैं।

दर्शनीय स्थल (आसपास)

  • नाथद्वारा ४८ किलोमीटर दूर है उदयपुर से
  • कुंभलगढ ८० किलोमीटर
  • कांकरोली ७० किलोमीटर
  • ऋषभदेव यह केसरिया जी के नाम से भी प्रसिद्ध है।
  • एकलिगजी१३ किलोमीटर
  • हल्दीघाटी २६ मील की दूरी पर स्थि
  • जयसमन्द झील
  • रणकपुर
  • चित्तौडगढ
  • जगत

यातायात सुविधाएं

उदयपुर के सार्वजनिक यातायात के साधन मुख्यतः बस, ऑटोरिक्शा और रेल सेवा हैं।
हवाई मार्ग
सबसे नजदीकी हवाई अड्डा उदयपुर हवाई अड्डा है। यह हवाई अड्डा डबौक में है। जयपुर, जोधपुर औरंगाबाद, दिल्लीक तथा मुंबई से यहाँ नियमित उड़ाने उपलब्धत हैं।
रेल मार्ग
यहाँउदयपुर सिटी रेलवे स्टेशन नामक रेलवे स्टेिशन है। यह स्टे‍शन देश के अन्य शहरों से जुड़ा हुआ है।
सड़क मार्ग
यह शहर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्याद 8 पर स्थित है। यह सड़क मार्ग से जयपुर से 9 घण्टे, दिल्ली से 14 घण्टे तथा मुंबई से 17 घण्टे की दूरी पर स्थित है।

हल्दीघाटी का युद्ध

यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी।
इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की।वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैंकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया। ,
इतिहासकार मानते हे कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए अकबर के विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितने देर तक टिक पाते पर एेसा कुछ नहीं हुए ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लो के छक्के छुड़ा दिया थे ओर सबसे बड़ी बात यहा हे की युद्ध आमने सामने लड़ा गया था! महाराणा कि सेना ने मुगल कि सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था ओर मुगल सेना भागने लग गयी थी।

महाराणा प्रताप के लिए बहुत ही सुन्दर कुछ पंक्तिया कही गयी है

--१......ले पार गया पर अब हारा चेतक गिर पड़ा लिए राणा
थे अश्रु भरे नयनों में जब देखा चेतक प्यारा राणा |
अश्रु लिए आँखों में सिर रख दिया अश्व गोदी राणा
स्वामी रोते मेरे चेतक! चेतक कहता मेरे राणा! |
हो गया विदा स्वामी से अब इकला छोड़ गया राणा
परताप कहे बिन चेतक अब राणा है नहीं रहा राणा |
सुन चेतक मेरे साथी सुन जब तक ये नाम रहे राणा
मेरा परिचय अब तू होगा कि वो है चेतक का राणा |


--२...अब वन में भटकता राजा है पत्थर पे सोता है राणा
दो टिक्कड़ सूखे खिला रहा बच्चों को पत्नी को राणा
थे अकलमंद आते कहते अकबर से संधि करो राणा
है यही तरीका नहीं तो फिर वन वन भटको भूखे राणा
हर बार यही उत्तर होता झाला का ऋण ऊपर राणा
प्राणों से प्यारे चेतक का अपमान करे कैसे राणा
एक दिन बच्चे की रोटी पर झपटा बिलाव देखा राणा
हृदय पर ज्यों बिजली टूटी अंदर से टूट गया राणा.
ले कागज़ लिख बैठा, अकबर! संधि स्वीकार करे राणा
भेजा है दूत अकबर के द्वार ज्यों पिंजरे में नाहर राणा.

मेवाड़ की शासक वंशावली

क्रममेवाड़ के शासकों के नामसमय कालटिप्पणी
1रावल बप्पा (काल भोज)734 ई०मेवाड़ राज्य के गहलौत शासन के सूत्रधार।
2रावल खुमान753 ई०
3मत्तट773 – 793 ई०
4भर्तभट्त793 – 813 ई०
5रावल सिंह813 – 828 ई०
6खुमाण सिंह828 – 853 ई०
7महायक853 – 878 ई०
8खुमाण तृतीय– 878 – 903 ई०
9भर्तभट्ट द्वितीय– 903 – 951 ई०
10अल्लट– 951 – 971 ई०
11नरवाहन– 971 – 973 ई०
12शालिवाहन– 973 – 977 ई०
13शक्ति कुमार– 977 – 993 ई०
14अम्बा प्रसाद– 993 – 1007 ई०
15शुची वरमा– 1007 1021 ई०
16नर वर्मा– 1021 – 1035 ई०
17कीर्ति वर्मा– 1035 – 1051 ई०
18योगराज– 1051 – 1068 ई०
19वैरठ– 1068 – 1088 ई०
20हंस पाल– 1088 – 1103 ई०
21वैरी सिंह– 1103 – 1107 ई०
22विजय सिंह– 1107 – 1127 ई०
23अरि सिंह– 1127 – 1138 ई०
24चौड सिंह– 1138 – 1148 ई०
25विक्रम सिंह– 1148 – 1158 ई०
26रण सिंह ( कर्ण सिंह )– 1158 – 1168 ई०
27क्षेम सिंह– 1168 – 1172 ई०
28सामंत सिंह– 1172 – 1179 ई०(क्षेम सिंह के दो पुत्र सामंत और कुमार सिंह। ज्येष्ठ पुत्र सामंत मेवाड की गद्दी पर सात वर्ष रहे क्योंकि जालौर के कीतू चौहान मेवाड पर अधिकार कर लिया। सामंत सिंह अहाड की पहाडियों पर चले गये। इन्होने बडौदे पर आक्रमण कर वहां का राज्य हस्तगत कर लिया। लेकिन इसी समय इनके भाई कुमार सिंह पुनः मेवाड पर अधिकार कर लिया। )
29कुमार सिंह– 1179 – 1191 ई०
30मंथन सिंह– 1191 – 1211 ई०
31पद्म सिंह– 1211 – 1213 ई०
32जैत्र सिंह– 1213 – 1261 ई०
33तेज सिंह-1261 – 1273 ई०
34समर सिंह– 1273 – 1301 ई०(समर सिंह का एक पुत्र रतन सिंह मेवाड राज्य का उत्तराधिकारी हुआ और दूसरा पुत्र कुम्भकरण नेपाल चला गया। नेपाल के राज वंश के शासक कुम्भकरण के ही वंशज हैं। )
35.रतन सिंह( 1301-1303 ई० )इनके कार्यकाल में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौडगढ पर अधिकार कर लिया। प्रथम जौहर पदमिनी रानी ने सैकडों महिलाओं के साथ किया। गोरा – बादल का प्रतिरोध और युद्ध भी प्रसिद्ध रहा।
36.अजय सिंह( 1303 – 1326 ई० )हमीर राज्य के उत्तराधिकारी थे किन्तु अवयस्क थे। इसलिए अजय सिंह गद्दी पर बैठे.
37.महाराणा हमीर सिंह( 1326 – 1364 ई० )हमीर ने अपनी शौर्य, पराक्रम एवं कूटनीति से मेवाड राज्य को तुगलक से छीन कर उसकी खोई प्रतिष्ठा पुनः स्थापित की और अपना नाम अमर किया महाराणा की उपाधि धारण की। इसी समय से ही मेवाड नरेश महाराणा उपाधि धारण करते आ रहे हैं।
38.महाराणा क्षेत्र सिंह( 1364 – 1382 ई० )
39.महाराणा लाखासिंह( 1382 – 11421 ई० )योग्य शासक तथा राज्य के विस्तार करने में अहम योगदान। इनके पक्ष में ज्येष्ठ पुत्र चुडा ने विवाह न करने की भीष्म प्रतिज्ञा की और पिता से हुई संतान मोकल को राज्य का उत्तराधिकारी मानकर जीवन भर उसकी रक्षा की।
40.महाराणा मोकल( 1421 – 1433 ई० )
41.महाराणा कुम्भा( 1433 – 1469 ई० )इन्होने न केवल अपने राज्य का विस्तार किया बल्कि योग्य प्रशासक, सहिष्णु, किलों और मन्दिरों के निर्माण के रूप में ही जाने जाते हैं। कुम्भलगढ़ इन्ही की देन है. इनके पुत्र उदा ने इनकी हत्या करके मेवाड के गद्दी पर अधिकार जमा लिया।
42.महाराणा उदा ( उदय सिंह )( 1468 – 1473 ई० )महाराणा कुम्भा के द्वितीय पुत्र रायमल, जो ईडर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे, आक्रमण करके उदय सिंह को पराजित कर सिंहासन की प्रतिष्ठा बचा ली। अन्यथा उदा पांच वर्षों तक मेवाड का विनाश करता रहा।
43.महाराणा रायमल( 1473 – 1509 ई० )सबसे पहले महाराणा रायमल के मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन को पराजित किया और पानगढ, चित्तौड्गढ और कुम्भलगढ किलों पर पुनः अधिकार कर लिया पूरे मेवाड को पुनर्स्थापित कर लिया। इसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि कुछ समय के लिये बाह्य आक्रमण के लिये सुरक्षित हो गया। लेकिन इनके पुत्र संग्राम सिंह, पृथ्वीराज और जयमल में उत्तराधिकारी हेतु कलह हुआ और अंततः दो पुत्र मारे गये। अन्त में संग्राम सिंह गद्दी पर गये।
44.महाराणा सांगा ( संग्राम सिंह )( 1509 – 1527 ई० )महाराणा सांगा उन मेवाडी महाराणाओं में एक था जिसका नाम मेवाड के ही वही, भारत के इतिहास में गौरव के साथ लिया जाता है। महाराणा सांगा एक साम्राज्यवादी व महत्वाकांक्षी शासक थे, जो संपूर्ण भारत पर अपना अधिकार करना चाहते थे। इनके समय में मेवाड की सीमा का दूर – दूर तक विस्तार हुआ। महाराणा हिन्दु रक्षक, भारतीय संस्कृति के रखवाले, अद्वितीय योद्धा, कर्मठ, राजनीतीज्ञ, कुश्ल शासक, शरणागत रक्षक, मातृभूमि के प्रति समर्पित, शूरवीर, दूरदर्शी थे। इनका इतिहास स्वर्णिम है। जिसके कारण आज मेवाड के उच्चतम शिरोमणि शासकों में इन्हे जाना जाता है।
45.महाराणा रतन सिंह( 1528 – 1531 ई० )
46.महाराणा विक्रमादित्य( 1531 – 1534ई० )यह अयोग्य सिद्ध हुआ और गुजरात के बहादुर शाह ने दो बार आक्रमण कर मेवाड को नुकसान पहुंचाया इस दौरान 1300 महारानियों के साथ कर्मावती सती हो गई। विक्रमादित्य की हत्या दासीपुत्र बनवीर ने करके 1534 – 1537 तक मेवाड पर शासन किया। लेकिन इसे मान्यता नहीं मिली। इसी समय सिसोदिया वंश के उदय सिंह को पन्नाधाय ने अपने पुत्र की जान देकर भी बचा लिया और मेवाड के इतिहास में प्रसिद्ध हो गई।
47.महाराणा उदय सिंह( 1537 – 1572 ई० )मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़गढ़ से उदयपुर लेकर आये. गिर्वा की पहाड़ियों के बीच उदयपुर शहर इन्ही की देन है. इन्होने अपने जीते जी गद्दी ज्येष्ठपुत्र जगमाल को दे दी, किन्तु उसे सरदारों ने नहीं माना, फलस्वरूप छोटे बेटे प्रताप को गद्दी मिली.
48.महाराणा प्रताप( 1572 -1597 ई० )इनका जन्म 9 मई 1540 ई० मे हुआ था। राज्य की बागडोर संभालते समय उनके पास न राजधानी थी न राजा का वैभव, बस था तो स्वाभिमान, गौरव, साहस और पुरुषार्थ। उन्होने तय किया कि सोने चांदी की थाली में नहीं खाऐंगे, कोमल शैया पर नही सोयेंगे, अर्थात हर तरह विलासिता का त्याग करेंगें। धीरे–धीरे प्रताप ने अपनी स्थिति सुधारना प्रारम्भ किया। इस दौरान मान सिंह अकबर का संधि प्रस्ताव लेकर आये जिसमें उन्हे प्रताप के द्वारा अपमानित होना पडा। परिणाम यह हुआ कि 21 जून 1576 ई० को हल्दीघाटी नामक स्थान पर अकबर और प्रताप का भीषण युद्ध हुआ। जिसमें 14 हजार राजपूत मारे गये। परिणाम यह हुआ कि वर्षों प्रताप जंगल की खाक छानते रहे, जहां घास की रोटी खाई और निरन्तर अकबर सैनिको का आक्रमण झेला, लेकिन हार नहीं मानी। ऐसे समय भीलों ने इनकी बहुत सहायता की।अन्त में भामा शाह ने अपने जीवन में अर्जित पूरी सम्पत्ति प्रताप को देदी। जिसकी सहायता से प्रताप चित्तौडगढ को छोडकर अपने सारे किले 1588 ई० में मुगलों से छिन लिया। 19 जनवरी 1597 में चावंड में प्रताप का निधन हो गया।
49.महाराणा अमर सिंह(1597 – 1620 ई० )प्रारम्भ में मुगल सेना के आक्रमण न होने से अमर सिंह ने राज्य में सुव्यवस्था बनाया। जहांगीर के द्वारा करवाये गयें कई आक्रमण विफ़ल हुए। अंत में खुर्रम ने मेवाड पर अधिकार कर लिया। हारकर बाद में इन्होनें अपमानजनक संधि की जो उनके चरित्र पर बहुत बडा दाग है। वे मेवाड के अंतिम स्वतन्त्र शासक है।
50.महाराणा कर्ण सिद्ध( 1620 – 1628 ई० )इन्होनें मुगल शासकों से संबंध बनाये रखा और आन्तरिक व्यवस्था सुधारने तथा निर्माण पर ध्यान दिया।
51.महाराणा जगत सिंह( 1628 – 1652 ई० )
52.महाराणा राजसिंह( 1652 – 1680 ई० )यह मेवाड के उत्थान का काल था। इन्होने औरंगजेब से कई बार लोहा लेकर युद्ध में मात दी। इनका शौर्य पराक्रम और स्वाभिमान * महाराणा प्रताप जैसे था। इनकों राजस्थान के राजपूतों का एक गठबंधन, राजनितिक एवं सामाजिक स्तर पर बनाने में सफ़लता अर्जित हुई। जिससे मुगल संगठित लोहा लिया जा सके। महाराणा के प्रयास से अंबेर, मारवाड और मेवाड में गठबंधन बन गया। वे मानते हैं कि बिना सामाजिक गठबंधन के राजनीतिक गठबंधन अपूर्ण और अधूरा रहेगा। अतः इन्होने मारवाह और आमेर से खानपान एवं वैवाहिक संबंध जोडने का निर्णय ले लिया। राजसमन्द झील एवं राजनगर इन्होने ही बसाया.
* 53.महाराणा जय सिंह( 1680 – 1698 ई० )जयसमंद झील का निर्माण करवाया.
* 54.महाराणाअमर सिंह द्वितीय( 1698 – 1710 ई० )इसके समय मेवाड की प्रतिष्ठा बढी और उन्होनें कृषि पर ध्यान देकर किसानों को सम्पन्न बना दिया।
* 55.महाराणा संग्राम सिंह( 1710 – 1734 ई० )महाराणा संग्राम सिंह दृढ और अडिग, न्यायप्रिय, निष्पक्ष, सिद्धांतप्रिय, अनुशासित, आदर्शवादी थे। इन्होने 18 बार युद्ध किया तथा मेवाड राज्य की प्रतिष्ठा और सीमाओं को न केवल सुरक्षित रखा वरन उनमें वृध्दि भी की।
* 56.महाराणा जगत सिंह द्वितीय( 1734 – 1751 ई० )ये एक अदूरदर्शी और विलासी शासक थे। इन्होने जलमहल बनवाया। शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को अपना “पगड़ी बदल” भाई बनाया और उन्हें अपने यहाँ पनाह दी.
* 57.महाराणाप्रताप सिंह द्वितीय( 1751 – 1754 ई० )
* 58.महाराणा राजसिंह द्वितीय( 1754 – 1761 ई० )
* 59.महाराणा अरिसिंह द्वितीय( 1761 – 1773 ई० )
* 60.महाराणा हमीर सिंह द्वितीय( 1773 – 1778 ई० )इनके कार्यकाल में सिंधिया और होल्कर ने मेवाड राज्य को लूटपाट करके तहस – नहस कर दिया।
61.महाराणा भीमसिंह( 1778 – 1828 ई० )इनके कार्यकाल में भी मेवाड आपसी गृहकलह से दुर्बल होता चला गया। 13 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी और मेवाड राज्य में समझौता हो गया। अर्थात मेवाड राज्य ईस्ट इंडिया के साथ चला गया। मेवाड के पूर्वजों की पीढी में बप्पारावल, कुम्भा, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप जैसे तेजस्वी, वीर पुरुषों का प्रशासन मेवाड राज्य को मिल चुका था। प्रताप के बाद अधिकांश पीढियों
में वह क्षमता नहीं थी जिसकी अपेक्षा मेवाड को थी। महाराजा भीमसिंह योग्य व्यक्ति थे निर्णय भी अच्छा लेते थे परन्तु उनके क्रियान्वयन पर ध्यान नही देते थे। इनमें व्यवहारिकता का आभाव था।ब्रिटिश एजेन्ट के मार्गदर्शन, निर्देशन एवं सघन पर्यवेक्षण से मेवाड राज्य प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला गया।
* 62.महाराणा जवान सिंह( 1828 – 1838 ई० )निःसन्तान। सरदार सिंह को गोद लिया।
* 63.महाराणा सरदार सिंह( 1838 – 1842 ई० )निःसन्तान। भाई स्वरुप सिंह को गद्दी दी.
* 64.महाराणा स्वरुप सिंह( 1842 – 1861 ई० )इनके समय 1857 की क्रान्ति हुई। इन्होने विद्रोह कुचलने में अंग्रेजों की मदद की।
* 65.महाराणा शंभू सिंह( 1861 – 1874 ई० )1868 में घोर अकाल पडा। अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढा।
* 66 .महाराणा सज्जन सिंह( 1874 – 1884 ई० )बागोर के महाराज शक्ति सिंह के कुंवर सज्जन सिंह को महाराणा का उत्तराधिकार मिला। इन्होनें राज्य की दशा सुधारनें में उल्लेखनीय योगदान दिया।
* 67.महाराणा फ़तह सिंह( 1883 – 1930 ई० )सज्जन सिंह के निधन पर शिवरति शाखा के गजसिंह के अनुज एवं दत्तक
  • पुत्र फ़तेहसिंह को महाराणा बनाया गया। फ़तहसिंह कुटनीतिज्ञ, साहसी स्वाभिमानी और दूरदर्शी थे। संत प्रवृति के व्यक्तित्व थे. इनके कार्यकाल में ही किंग जार्ज पंचम ने दिल्ली को देश की राजधानी घोषित करके दिल्ली दरबार लगाया. महाराणा दरबार में नहीं गए .
* 68.महाराणा भूपाल सिंह(1930 – 1955 ई० )इनके समय में भारत को स्वतन्त्रता मिली और भारत या पाक मिलने की स्वतंत्रता। भोपाल के नवाब और जोधपुर के महाराज हनुवंत सिंह पाक में मिलना चाहते थे और मेवाड को भी उसमें मिलाना चाहते थे। इस पर उन्होनें कहा कि
मेवाड भारत के साथ था और अब भी वहीं रहेगा। यह कह कर वे इतिहास में अमर हो गये। स्वतंत्र भारत के वृहद राजस्थान संघ के भूपाल सिंह प्रमुख बनाये गये।
69.महाराणा भगवत सिंह( 1955 – 1984 ई० )
70.श्रीजी अरविन्दसिंह एवं महाराणा महेन्द्र सिंह(1984 ई० से निरंतर..)इस तरह 556 ई० में जिस गुहिल वंश की स्थापना हुई बाद में वही सिसोदिया वंश के नाम से जाना गया। जिसमें कई प्रतापी राजा हुए, जिन्होने इस वंश की मानमर्यादा, इज्जत और सम्मान को न केवल बढाया बल्कि इतिहास के गौरवशाली अध्याय में अपना नाम जोडा।  आज राजस्थान का इतिहास इन्ही वीरो की शहादत का पर्याय बन गया है।

रविवार, 26 मार्च 2017

मेवाड़ व्यापार के प्रमुख केन्द्र

व्यापार के प्रमुख केन्द्र

गाँवों में व्यापार का काम साप्ताहिक (साती) अथवा मासिक (मासी) हटवाड़ (बाजार) लगा कर किया जाता था। ऐसे हटवाड़ प्रत्येक १०- १२ गाँवों के मध्य लगाये जाते थे। राज्य के आंतरिक व्यापार के प्रमुख केन्द्र उदयपुर, भीलवाड़ा, राशमी, समवाड़, कपासन, जहाजपुर तथा छोटी सादड़ी थे। अंतर्राज्यीय व्यापार के लिए मेवाड़ के वणिक- गण समुह बना कर क्रय- विक्रय हेतु दुरस्थ प्रदेशों में जाते थे। ये व्यापारिक यात्राएँ सर्दी के बाद प्रारंभ हो जाती थी तथा वर्षाकाल से पूर्व समाप्त हो जाती थी।
व्यापारिक यातायात- व्यवस्था
आलोच्यकाल में व्यापारिक यातायात का मुख्य साधन कच्चे व पथरीले मार्ग रहे थे। इन्हीं मार्गों से बनजारे बैलों व भैंसों द्वारा, गाडुलिया लुहार बैलगाड़ियों से, रेबारी लोग ऊँटों द्वारा, कुम्हार तथा ओड़ लोग खच्चर व गधों पर माल लाने- ले जाने का काम करते थे। वैसे स्थान जहाँ पशुओं द्वारा ढ़�लाई संभव नहीं थी, माल आदमी की पीठ पर लाद कर लाया जाता था। लंबी दूरी पर माल- ढ़�लाई का कार्य चारण, बनजारा तथा गाड़ूलिया लुहार, जैसे लड़ाकू - बहादुर जाति के लोग संपन्न करते थे। चारण जाति को समाज में ब्राह्मण - तुल्य स्थान प्राप्त था, अतः इनके काफिलों का लूटना पाप माना जाता था। व्यापारिक काफिले, जो बैलों के झुण्ड पर माल लाद कर चलते थे, बालद (टांडा) कहलाते थे। एक बालद में एक से एक हजार तक बैल हो सकते थे। ऊँटों का काफिला एक दिन में करीब २२ मील की दूरी तय करता था, वहीं घोड़े से ५० मील तक की यात्रा की जा सकती थी। बैलगाड़ी, गधे, खच्चर आदि एक दिन में २५- ३० मील की दूरी तय कर लेते थे।
यात्रा के दौरान रात्रि को मार्ग पर स्थित गाँवों, धर्मशालाओं, धार्मिक स्थलों या छायादार वृक्षों के आस- पास विश्राम किया जाता था, जहाँ पानी के लिए कुँए बावड़ियों की व्यवस्था होती थी। मार्ग स्थित सभी बावड़ियों के किनारे पशु के पेय हेतु प्याउएँ बनी होती थी।
१८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यात्रियों व व्यापारियों को सुरक्षार्थ संबद्ध जागीरदारों का रखवाली एवं बोलाई नामक राहदरी (मार्ग- शुल्क) देना पड़ता था। वैसे तो ब्रिटिश संरक्षण काल में इन शुल्कों को समाप्त कर दिया गया, फिर भी जागीरदारों इन अधिकारों का अनधिकृत प्रयोग करते थे। मराठा अतिक्रमण काल में मार्ग का सुरक्षित यात्रा बीमा तथा प्रति बैल के हिसाब से व्यापारिक माल बीमा देना पड़ता था। वर्षा के दिनों में मार्ग अवरुद्ध हो जाने की स्थिति में कीर नामक जाति के लोग "उतराई' शुल्क लेकर लोगों को सुरक्षित नदी पार कराती थी।
अभिजात्य तथा संपन्न वर्ग के लोग पालकियों व बग्गियों पर यात्रा करते थे।
चुंगी व्यवस्था
व्यापारिक माल की आमद (आयात) और निकास (निर्यात) पर व्यापारियों को दाण, बिस्वा एवं मापा नामक शुल्क राज्य को देना पड़ता था। एक गाँव से दूसरे गाँव माल ले जाने के लिए ग्राम- पंचायतों को ""माना' चुकाना पड़ता था। दाण व बिस्वा के अधिकार प्रायः राणा के पास होता था, लेकिन १८ वीं सदी में विशिष्ट सैन्य- योग्यता प्रदर्शित करने वाले क्षत्रियों को भी दाण लेने के अधिकार प्रदान किये गये थे। इन अधिकारों का सन् १८१८ ई. के बाद केंद्रीकरण करने की व्यवस्था की गई, जो राणा स्वरुप सिंह तक चली भी। फिर से ठेके की सायर (चुंगी) व्यवस्था तोड़कर स्थान- स्थान पर राज्य के दाणी- चोंतरे बनाये गये।
रेल की सुविधा आ जाने के बाद प्रत्येक स्टेशनों पर दाणी - घर बनाये गये। दाणी व हरकारे नियुक्त किये गये। यहाँ से माल उतारने व माल चढ़ाने की चुंगी ली जाती थी। पहले चुगी नगों की गिनती, अनाज की तोल व पशु गणना के आधार पर ली जाती थी। बाद में २० वीं सदी के पूर्वार्द्ध में शुल्क लिया जाने लगा। आयात शुल्क निर्यात शुल्क से अधिक लिया जाता था। पूण्यार्थ धर्मार्थ वस्तुओं, लड़की के विवाह व मृत्युभोज की वस्तुओं पर चुंगी नहीं ली जाती थी।

मेवाड़ में विकसित उद्योग-धंधे

विकसित उद्योग-धंधे

मेवाड़ राज्य में जन- जीवन में ज्यादातर कुटीर ग्रामोद्योग का प्रचलन था। इन उद्योगों का विस्तार आत्मनिर्भर आर्थिक- व्यवस्था के अनुरुप राज्य की माँग तथा पूर्ति तक सीमित था। ज्यादातर उद्योग- धंधे जाति समाज की जातियों व वंशानुगत स्थितियों पर आधारित थे। जातिगत उद्योगों में कार्यरत शिल्पियों के दो स्तर थे -
  • क. ग्राम्य शिल्पी
  • ख. नगर शिल्पी
ग्राम्य शिल्पी कृषि तथा ग्राम्य- जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कार्य करते थे। इनका आर्थिक जीवन कृषि- आश्रित रहता था। वे अर्द्ध- कृषक हो सकते थे। नगर शिल्पी कुशल शिल्पी की श्रेणी में आते थे। उन्हें दो श्रेणियों में बाँटा गया है -
  • नगर शिल्पी -- श्रमिक शिल्पी
  • -- व्यवसायी शिल्पी
श्रमिक शिल्पियों में भवन- निर्माण करने वाले मिस्री व अन्य कारीगर, कपड़ों की सिलाई करने वाले महिदाज, रेजा बुनने वाले बलाई, कपड़ा रंगने वाले रंगरेज, कागज बनाने वाले कागदी, सोना- चाँदी के बरक बनाने वाले, कपड़ो की छपाई करने वाले छीपा, बर्तन गढ़ने वाले कसारा इत्यादि जाति के लोग प्रमुख है। सुनार, लुहार, सुथार, कुम्हार, दर्जी, जीणगर, सिकलीगर, अंतार- गंधी, उस्ता, पटवा, कलाल आदि जातियाँ व्यवसायी शिल्पियों के वर्ग में आते थे।
मेवाड़ राज्य के प्रमुख उद्योग निम्न थे -
1. वस्त्र उद्योग
प्रत्येक गाँव में चर्खे द्वारा सूत कातने तथा मोटे सूती कपड़े (रेजा) की बुनाई का काम किया जाता था। एक कहावत के अनुसार -
मोटो खाणों, मोटो पेरणों अर छोटो रेहणों
अर्थात आदर्शवान नम्र व्यक्ति मोटे अनाज (मक्की- धान आदि) खाते है तथा रेजा पहनते है।
मेवाड़ राज्य के मध्य एवं पूर्वी दक्षिणी भाग में कपास का उत्पादन होने के कारण यह क्षेत्र रेजाकारी का प्रमुख केंद्र था। मुस्लिम जाति के जुलाहे बारीक कपड़े की बुनाई का काम करते थे, लेकिन इन वस्रों का प्रचलन मात्र अभिजात व कुलीन वर्ग में ही होने के कारण मोटे रेजा उद्योग जैसा प्रचलित नहीं हो पाया। वस्र- निर्माण, रंगाई, छपाई व कढ़ाई का काम मुस्लिम जाति के रंगरेजों, छिपाओं तथा हिंदूओं में पटवा लोगों द्वारा किया जाता था। छपाई में लकड़ी के ब्लाकों का प्रयोग होता था, जिसका निर्माण शिल्पी- सुथार करते थे। गोटे- किनारी के व्यवसाय पर पारख जाति के ब्राह्मणों का एकाधिकार था।
2. काष्ठ- उद्योग
मेवाड़ राज्य की तिहाई भूमि वनाच्छादित थी। सीसम, सागवान, आम, बबूल व बाँस के वृक्ष बहुतायत में थे। लकड़ियों का प्रयोग विशेष रूप से कृषि- उपकरण, भवन तथा बरतन बनाने में होता था। लकड़ी में खुदाई व नक्काशी का काम सुथार लोग करते थे।
3. लुहारी व चर्मकारी उद्योग
ग्राम्य लुहार, चमार व गाडूलिया- लुहार (एक घुमक्कड़ व्यवसायी जाति) कृषि के लिए लौह- उपकरणों, जैसे हल, कुदाल, नीराई- गुड़ाई करने की खाप, चड़स आदि तथा घरेलू- सामानों (चिमटा, दंतुली, सांकल, चाकू आदि) बनाने का कार्य करती थी। नगरों में यह काम सिकलीबर, जीणगर व मोची द्वारा किया जाता था।
4. बर्तन - उद्योग
जन- साधारण की स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मिट्टी के बर्तन बनाये जाते थे। बांस की सुलभता के कारण बांस के बर्त्तनों का भी प्रचलन था। बांस का कार्य गांछी तथा हरिजन जाति के लोग करते थे। वे टोकरियाँ, छाब, कुंडया, टाटा आदि बनाने का कार्य करते थे। तांबा, पीतल तथा कांसा के मिश्रित बर्त्तनों का निर्माण कार्य कसारा जाति के लोग करते थे। उदयपुर में पीतल, तांबा आदि के साथ- साथ सोनियों द्वारा सोने- चाँदी के बरतन भी बनाने के कारोबार किया जाता था।
5. आभूषण उद्योग
कलात्मक आभूषण बनाने तथा जड़ाई करने का कार्य सोनी तथा जड़िया जाति के लोग करते थे। वे तलवारों व कटारियों की मूठों पर भी जड़ाई व खुदाई का काम करते थे। मीनाकारी का काम विशेष रूप से नाथद्वारा में होता था।
6. अन्य उद्योग
उपरोक्त उद्योगों के अलावा यहाँ मूर्ति एवं चित्रकारी, चूड़ी, इत्र, कागज व शराब बनाने के उद्योग विकसित थे। चतारा उद्योग का व्यापक प्रचलन विभिन्न ठिकानों, हवेलियाँ व लोक- शिल्प के रूप में सभी घरों में था। वैसे तो कागज का गुजरात से आयात किया जाता था, लेकित मेवाड़ में भी घास की गुदा, मांस, कपड़ों को सड़ाकर लेप तैयार कर मोटा कागज बनाने का प्रचलन था। बनाने वाले "कागदी' कहलाते थे। बारुद सोनगरों द्वारा तैयार किये जाते थे। क्रलाल जाति के लोग महुआ, केशव व गुलाल से शराब बनाते थे।
राजमहलों में कई कारखाने काम करते थे। वहाँ शिल्पियों को शासन द्वारा बेगार में अथवा वेतन- मजदूरी पर काम करना होता था। यहाँ मुख्यतः पत्थर - नक्काशी, मूर्ति शिल्प, चित्रकारी, वस्र- सिलाई, आभूषण- जड़ाई, डोली, स्वर्णकारी, औषधि व नाव आदि बनाने का काम होता था। कारखाने के उत्पादों का प्रयोग राज्य के मर्दाना महल तथा जनाना महल में रहने वाले लोग करते थे।
मेवाड़ राज्य के उद्योग- धंधे
वस्तु का नाम संबद्ध निर्माण - स्थल
दुपट्टा एवं छींट के वस्र हम्मीरगढ़
रेजा की जाजम व पछेवड़ा,
वस्र-बंधाई, रंगाई व छपाई चित्तौड़, अकोला, उदयपुर
पगड़ियां, मोठड़े, चूंदड़ियाँ व लहरियों की छपाई व रंगाई उदयपुर
बहुमूल्य कपड़ों पर सोने चांदी के तार तथा रेशम के धागों द्वारा कढ़ाई उदयपुर
कपास तथा ऊन ओटने का कारखाना भीलवाड़ा
लकड़ी के कलात्मक खिलौने व चुड़ियाँ उदयपुर, भीलवाड़ा, जहाजपुर, शाहपुर
पावड़ा पर पॉलिश भीलवाड़ा, जहाजपुर, शाहपुर
भवन- निर्माण में उपयुक्त कलात्मक काष्ठ - निर्मित वस्तुएँ सलूम्बर, कुरबड़, भीण्डर
तलवार, खंजर- छूरी, कटारी, भाले ढ़ाल, हाथी, घोड़े तथा ऊँटों की जीण या काठी उदयपुर
मिट्टी के कलात्मक बर्त्तन कुँआरिया, उदयपुर तथा कपासन
लौह- निर्मित हमामदस्ता व तगारियाँ विगोद
ताँबा, पीतल व कांसा आदि धातुओं के बरतन भीलवाड़ा, उदयपुर
सोने- चाँदी के बरतन उदयपुर
आभूषण निर्माण व नगीना- जड़ाई उदयपुर
मीनाकारी नाथद्वारा
हाथीदाँत, लाख व नारियल की चूड़ियाँ उदयपुर, भीलवाड़ा
मोमबत्ती कोठारिया
गुलाबजल व गुलाब का इत्र खमनोर
कंबल देवगढ़
हरे घीया पत्थर की मूर्तियाँ ॠषभदेव
भीत्तिचित्र व कलमकारी उद्योग नाथद्वारा, उदयपुर
मोटा कागज उद्योग घुसुन्डा
बारुद केवला, चित्तौड़ व पुर
देशी साबुन उदयपुर, भीण्डर

इतिहास --मेवाड़ के शासक अल्लट से रावल समरसिंह

* मेवाड़ का इतिहास * भाग - 2 बप्पा रावल से रावल रतनसिंह के बीच में 32 शासक हुए, जिनमें से कुछ इस तरह हैं - "अल्लट" * 951 ई...